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कहानी, बच्चे और मैं!

21st February is International Mother Language Day and our blog is hosting a celebration of languages. A series of blog posts by people from different walks of life – sharing their thoughts on languages, memories and more. International Mother Language Day is an observance held annually on 21 February worldwide to promote awareness of linguistic and cultural diversity and multilingualism.

(This post was sent to us by Nayana Adarkar. Nayana, a graduate in commerce, working as a Sr. Sub Editor for Daily Bhaangarbhuin, has published 3 poetry collections, 2 literary essays, a collection of short stories and 16 books for children. Her songs have been included in children’s audio CDs and her poetry is a part of the Goa Higher Secondary syllabus as well as B.A. syllabus. One of her poems has been included in the Maharashtra Higher Secondary Board syllabus. She has received two awards for children’s literature, six awards for her poetry and one for her for story collection. She is also the recipent of the Goa State Yashodamini Award for Literature.)

In this post, Nayana talks about telling stories to children as well as sharing them in their own language.


बचपन एक कहानी सा
रोमरोम में घुलता गया
जीवन के हरएक मोडपर
कहानी बन खिलता गया
कहानी ही तो है, जो हर बच्चे से रिश्ता जोडती है उसके बचपन में। उनमें सपने जगाती है। आशा का हौसला जगाती है। नाना-नानी, दादा-दादी, मामा-काका इनको साधन बनाकर बच्चों का बचपन सहलाती है। हाँ, वह कहानी ही तो है जो बच्चे को ताकतवर बनाती है, किसी भी संकट में हल ढुंढने का तरीका सिखाती है। इस कहानी से हर बच्चे का रिश्ता जुडता है बचपन में। कहानी उसे ले जाती है चंदामामा के साथ आसमान की सैर कराने, तो कभी पंछी, जानवरों की बातें सुनाने जंगल में। कहानी उसे समझाती है रिश्तों का अर्थ, माँ की ममता, नानी-दादी की ममतामयी गोद का स्पर्श.

मेरा बचपन भी इसी तरह कहानियों के संग गुजरा. रात को नानी की कहानी सुनते सुनते मेरे भाई-बहन सोया करते थे। लेकिन मैं जागती। पूरी कहानी सुनके ही सो जाती। कहानियों में साहसी राजकन्यायें थी, खरगोश, भालू जैसे जानवर भी थे, डायने, राक्षस और भूत भी थे। लेगीन हर कहानी में साहसी बनने की, सच्चाई का साथ देने की, संकटोंसे जुझने की ताकद बढती थी। मेरी माँ शिवलिला, रामायण पाठ करती थी। पिताजी चंदामामा और कहानियों की किताबें लाकर देते थे। शायद यहीं सब मुझमें कहानियों के प्रती खिंचता चला गया।

मैं पढती गई। हिंदी, मराठी, कोंकणी, इंग्लीश कहानियाँ। लेकीन जो मजा कहानी सुनने मे आता था वो कुछ अलग ही था। मेरी नानी, उसकी सौ साल की ननंद जिन्हें हम बा कहते थे, हमारी मातृभाशा कोंकणी में ही कहानियाँ सुनाया करती थी। सहज, सुलभ, हमारे परिचीत शब्द, कहानी जल्दी समझ में आ जाती थी। उसमें मेरी नानी का कहानी सुनाने का तरीका ही अलग था। वह कहानी के साथ घुलती थी। उसके चेहरे के भाव से, उसकी आँखों से कहानी जैसे झलकते उसकी होंठो पर आ जाती थी। मै इससे बहुत प्रभावीत हुई। शायद इसका ही असर मेरी कहानी सुनाने के वक्त दिखाई देता है।

मुझे तभी से आदत हो गई। मेरी छोटी बहनों को मैं कहानी सुनाती थी। पुराने कहानी में मेरा मसाला डालकर वह कुछ अजीब सा रसायन बन जाता थी। लेकीन ताज्जुब की बात यह थी की मेरी कहानियाँ मेरी बहनों को ही नही, मेरे नानी को भी पसंद आने लगी। फिर स्कूल में, कॉलेज में, आसपास के किसी फंक्शन में मुझे कहानियॉ सुनाने के लिए बुलाने लगे। गोवा दूरदर्शन, आकाशवाणी, केंद्रीय वाचनालय आदी में मै बच्चों को कहानी सुनाने बुलवाने लगे।

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मैं बच्चों के लिए लिखती थी। वही कहानी सुनाती थी। फिर जो कहानियाँ मुझे अच्छी लगने लगी मैं बच्चों को सुनाने लगी। मेरे कहानियों को गोवा के बिम्ब प्रकाशन, पणजी और कुडचडें कोंकणी सेवा केंद्र ने बालसाहित्य पुरस्कार देकर सन्मानीत किया। कोंकणी भाशा मंडल के नर्सरी तथा प्रीप्रायमरी और प्रायमरी बच्चों के लिए कविताएँ, तथा बालगीत लिखे। कोंकणी भाशा मंडळकी रत्नाजीने ही उषा शर्माजी से मिलवाया, उसी तरह स्टोरीव्हिवर से भी मेल बढ गया। बच्चों के लिए 14 कथा-कविता संग्रह प्रकाशीत हुए।

मैं कथाएँ, कविताएँ, ललिल लेखन, स्तंभ लेखन करती हूँ। लेकिन बच्चों के लिए साहित्य निर्मिती मुझे ज्यादा सुकून दिलाती है। मैं पत्रकार हूँ, न्यूज की घिसीपिटी दुनियाँ में हर सप्ताह को एक दीन बच्चों के लिए एक पन्ना तैयार करती हूँ, जिसमें बच्चों की कहानियाँ, चित्र, कविताएँ आदी होती है। यह पन्ना इस दुनिया में मुझे बहुत राहत दिलाता है।
बच्चे बहुत प्यारे होते है। लेकिन क्या हम उनका बचपन संभाल पाते है? जिस उमर में खेलना कुदना, नई नई बातें सीखना, उसी उमर में हम उन्हें किताब थमाते है पढाई की। वो भी उस भाशा में जो उसके लिए बिल्कुल अपरिचीत है। मातृभाषा, जो जन्म से बच्चा सुनता आता है अपनी माँ से, नाना-नानी, दादा-दादी, पासपडोस से उससे बिल्कुल विपरीत भाषा उसके कान में पडती है। वो भाषा भला समझमें न आई हो, परीक्षा पास होने के लिए बच्चा रटता जाता है। मैने इसके प्रयोग किये है। जब कोई कोंकणी मातृभाषावाला बच्चा सुनता है ‘यो रे पावसा यो, दिता घे भोबो, भोबो खा घटमूट जा, घरार पड घो घो’ तो उसका मतलब उसको झट से समज आता है। बरसात को बुलाते वह भी उसे खाना खाने को बुलाता है। खाना खा के मोटे होके फिर जोर से बरसने को कहता है। लेकिन रेन रेन गो अव्हे … भला कौन बच्चा बरसात में भिगना पसंद नही करेगा?

बच्चों को कहानी सुनाना हो तो पहले बच्चे बन जाओ. एक बुजुर्ग बच्चों के सामने खडा रहेगा तो बच्चे उतने घुल मिलेंगे नही। लेकीन जब हम भी बच्चों में बच्चे बन गये तो देखो क्या मजा आता है! मेरा एक अनुभव यहाँ शेअर करना चाहूंगी। केंद्रीय लायब्ररी में एक कार्यक्रम रखा था। मुझे कहानी सुनाने के लिए बुलाया था। पहले कुछ भाषण हुए, फिर कहानी पढी गई। बच्चे इधर उधर तांकने लगे। मेरी बारी आई तब तक तो बच्चे उब गये थे। मैने शुरू किया, बच्चों मेरे साथ भालू की ट्रेन खेलने कौन आना चाहता है। सभी बच्चे उठ खडे हुए। फिर मैने भालू की गाडी चलाई, मेरे साथ सारे बच्चे। उस दीन मुझे मेरा बचपन याद आया।
आज के बच्चे बहुत होशियार है। कहानियाँ सुनते ही झट से सवाल करते है, क्यो, कब, कैसे? उन सवालों के जबाब देने के लिए तैयार रहना पडता है। एक बार एक औरत ने मुझे कहा, हमें हमारे बच्चों को कहानी सुनाने के लिए वक्त ही नही है। इसलिए हम उसे कहानियों की सीडी ला देते है। उसे सब कहानियाँ अच्छी तरह से आती है। काश वह एक बार अपने बच्चों को कहानी सुनाती, तो देखती बच्चों को मिलती खुशी। कहानी सुनाना मतलब महज सुनाना नही। उस बच्चे को कहानी के प्रती, कहानीकारा के प्रती अपने आप खिंचना. उस लगाव से उस बच्चे में कहानियों की दुनियाँ की सैर कराना, उनमें सपने जगाना, उम्मीदे जगाना। अपना कुछ समय, थोडा सा प्यार और ढेर सारी कहानियाँ बच्चों का बचपन उन्हे लौटा सकता है।

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