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मेरी अपनी सी

21st February is International Mother Language Day and our blog is hosting a celebration of languages. A series of blog posts by people from different walks of life – sharing their thoughts on languages, memories and more. International Mother Language Day is an observance held annually on 21 February worldwide to promote awareness of linguistic and cultural diversity and multilingualism.

(This post was sent by Amna Singh. Amna is a communications grad (MICA 2000), ex FCB-Ulka and Epigram, now a part of the Content Team at StoryWeaver AND a mother of two. Yeah, well, the last one kind of nails it in!)



My languages are all muddled up. English is my ‘writing’ language. Punjabi is asked to be formally seated behind the ‘mother language’ placard. But it is Hindi I turn to, in my most honest and also, my most distressed moments. हिंदी मेरे ‘घर में बोली जाने वाली भाषा’ है। और शायद इसी वजह से ये मेरे अंतर्मन की बोली भी है। मैंने अपने आप को कभी भी अंग्रेज़ी में सोचते हुए नहीं पाया। और जहाँ तक की स्वयं से संवाद का सवाल है, इस नग्न, भावुक और कभी-कभी नाज़ुक बातचीत का माध्यम और दायित्व तो केवल हिंदी ही उठा सकती है। तो हुई न हिंदी भी माँ जैसी।
ज़िन्दगी के कुछ चुनिंदा मोड़ों को सिर्फ़ माँ का ही आँचल पकड़ कर, या फिर उसकी चुन्नी ओढ़ कर आँखें मूँद लेने से ही पार किया जा सकता है।
ठीक उसी तरह, कई भावनाएं सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदी में ही बयान हो सकती हैं। कोई ‘धत्त तेरी की’ बोल के तो दिखाये ज़रा अंग्रेजी में… है कोई माई का लाल जो इस तूफानी नदी को अंग्रेज़ी पतवारों के बल पार कर सकता है?
अब आप ही बताएं कि pickle भी भला कभी अचार हुआ है? कहाँ अचार के चिकने मर्तबानों में छुपे खुबूओं के राज़ और कहाँ pickle की संभली-सिकरी सी बोतलों पर लगे सामग्री सूची के लेबल!
मुझे ये भी एहसास है की शायद मेरी यादें, जिन्हें मूलतर रूप से हिंदी में पिरोया गया है, वे अब भी ताज़ा हैं। बचपन में पढ़ी-सुनी हिंदी कवितायें, कहानियां, निबंध – मेरे ज़हन में नक्काशीदार आयतों की तरह अमिट सी हैं।
गोपालदास नीरज की…
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से …
लुट गये सिंगार सभी,
आग के बबूल से …
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे…
कारवां गुज़ार गया, गुबार देखते रहे।
और कृष्णा सोबती की शाहनी को भला मै कैसे भुलाऊँ। She is my strength, my guiding light in moments of deep darkness.
उफ्फ़… this!
”शाहनी मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते! वकत ही ऐसा है। राज पलट गया है, सिक्का बदल गया है…”
रात को शाहनी जब कैंप में पहुंचकर जमीन पर पड़ी तो लेटे-लेटे आहत मन से सोचा ‘राज पलट गया है…सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आयी…’
वियोगी हरि जी का यह निबंध, मेरे बचपन में पढ़ा हुआ एक लेख ही नहीं, बल्कि एक परिपक्व सपना था। शायद सपना ही रह जायेगा।
यह विश्व-मंदिर होगा कैसा? एक अजीब-सा मकान होगा वह। देखते ही हर दर्शक की तबीयत हरी हो जाएगी। रुचि वैचित्र्य का पूरा ख्याल रखा जाएगा। भिन्नताओं में अभिन्नता दिखाने की चेष्टा की जाएगी। नक्शा कुछ ऐसा रहेगा, जो हर एक की आँखों में बस जाए। किसी एक खास धर्म-संप्रदाय का न होकर वह मंदिर सर्व धर्म संप्रदायों का समन्वय-मंदिर होगा। वह सबके लिए होगा, सबका होगा। वहाँ बैठकर सभी सबके मनोभावों की रक्षा कर सकेंगे, सभी-सबको सत्य, प्रेम और करुणा का भाग दे सकेंगे।
हिंदी मुझे जानती है। मेरे दबे आंसू, मेरी ख़ामोश हंसी, मेरे अंदरूनी खौफ़, मेरा जूनून – यह सब पहचानती है।
नहीं तो इतना आसान कहाँ था बाबुषा कोहली के लिए मुझे रुला देना…
… हुआ यह कि तमीज़ भूल गया एक बरगद
अपने बरगद होने की
छांव, हरियाली, ठौर कुछ भी नहीं मिलता
धूप धूप भटकता रहा प्रेम भूखे
कौर कौर दिल कुतरता रहा…
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