जितने पुल बना सको, बनाओ
By Rajesh Khar
All languages are equal. Yet some remain more mainstream than others, and there are many complex historical, geo-political and socio-economic reasons for this. At Pratham Books, we’ve celebrated languages for the past week around International Translation Day on September 30th. In closing, Rajesh Khar, Senior Editor at Pratham Books writes about translations in languages that are not considered mainstream.
मन के भावों और अनुभवों को दूसरों को समझा पाने की आवश्यकता से ही भाषाओं का विकास हुआ है। मनुष्य अपनी व्यथा, पीड़ा, आनन्द, क्रोध-आक्रोश, स्नेह-प्रेम आदि को दूसरों के साथ सांझा करने को आतुर रहता है और इसी से भाषाओं की गहराई, उनकी मधुरता, उनकी भाव परिपूर्णता और उनके साहित्य ने जन्म लिया। परन्तु एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में भाषाओं की विभिन्नता ही बाधक भी बनती है। प्रत्येक भाषा अपने-आप में इतनी विकसित है कि उसका अपना अलग इतिहास, व्याकरण, शब्दावली, अलंकार, प्रचलन और अभिव्यक्ति है। अपनी अलग व्यक्तित्व और पहचान है।
कोई भाषा बड़ी या छोटी नहीं होती। इतिहास के क्रम में कुछ भाषाओं को वरीयता प्राप्त हुई है और कुछ बड़ी पिछड़ी हुई रही हैं परन्तु यह वरीयता उस काल विशेष की राजनैतिक, आर्थिक, भौगोलिक, वाणिज्यिक एवं प्रशासनिक परिस्थितियों का परिचायक मात्र है। उदाहरण के लिए पिछली दो शताब्दियों के ब्रिटिश उपनिवेशवाद का एक सीधा परिणाम यह हुआ कि अंग्रेज़ी भाषा को विश्व के अधिकतर भागों में पहले प्रवेश और फिर फलने-फूलने का अवसर मिला। इस बात का अंग्रेज़ी भाषा में निहित गुणों से कोई लेना-देना नहीं है। इसी प्रकार यदि साठ लाख लोगों की भाषा होकर भी सन्थाली एक प्रमुख भाषा का दर्जा नहीं ले पाई है तो इसका कारण सन्थाली में अन्तर्निहित स्वभाव और गुण या उसका व्याकरण नहीं हैं बल्कि कारण भौगोलिक, आर्थिक, प्रशासनिक और राजनैतिक हैं।
प्रथम बुक्स में हम सदा इस बात को लेकर संवेदनशील रहे हैं कि यदि एक भी परिवार कोई भाषा बोलता है तो वह भाषा जीवित रहनी चाहिए। भाषाओं की विविधता का न केवल मनुष्य की सांस्कृतिक विविधता बल्कि उसके क्रमित विकास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। साथ ही भाषाओं के आदान-प्रदान पर ही सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी टिका होता है क्योंकि भाषा मनुष्य के प्रत्येक उद्यम के मूल में छिपी हुई होती है, चाहे कितने ही गौण या परोक्ष रूप में ही क्यों न हो।
हिन्दी के जाने-माने लेखक, आलोचक और साहित्यकार प्रकाश मनु कहते हैं कि ‘भाषा ही बाँधती भी है और पिरोती भी है’। वाकई, पूर्वी तिब्बत से दो महीने पैदल चलकर भारत पहुँचे एक तिब्बती शरणार्थी बुद्धा क्येब हमसे बँधे तो कैसे? तिब्बती भाषा के माध्यम से। अनुवाद के माध्यम से। धर्मशाला से नियंत्रित तिब्बती बच्चों के स्कूलों में उनकी मातृभाषा में रोचक पुस्तकें पहुँच पाए, इस ध्येय ने उन्हें और उनके साथियों को प्रथम बुक्स से जोड़ा। उन्होंने दो पुस्तकों की पाँच-पाँच हज़ार प्रतियाँ तिब्बती में तैयार कीं और उन पुस्तकों को बच्चों तक पहुँचाया। फिर एक सिलसिला शुरू हो गया जो अभी भी जारी है। धर्मशाला स्थित कई मित्र हैं जो हमारी पुस्तकें तिब्बती में अनूदित करते हैं और पुस्तकें बच्चों को प्राप्त होती रहती हैं। इस भाषाई आदान-प्रदान का परिणाम यह है कि आज तिब्बती बच्चे किरण कस्तूरिया द्वारा लिखित द रेड रेनकोट पुस्तक का अपनी भाषा में आनन्द उठा रहे हैं और सेलिंग शिप्स एंड सिंकिंग स्पून्ज़ जैसी पुस्तक का सृजन हुआ जो विज्ञान पर आधारित होने के बावजूद, उसके पात्र व चित्र तिब्बती परिवेश को दर्शाते हैं।
ओडिशा ऐसा राज्य है जहाँ ६५ जनजातीय भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। मुण्डा, कुई, सौरा और जुआंग इन्हीं में से चार हैं। प्रथम बुक्स के अथक प्रयासों से इन भाषाओं में पहली बार पुस्तकें तैयार हुईं और वो भी उन्हीं भाषाओं के लेखकों और चित्रकारों द्वारा रचित कहानियों के आधार पर। सन २०१४ से आरम्भ हुए इस कार्य में वर्तमान तक कुल मिलकर चालीस पुस्तकें तैयार हुई हैं। इस प्रकार के अनुवाद के माध्यम से कोरापुट, क्योंझर, ढेंकेनाल आदि दूर दराज़ के लोग आकर हमसे जुड़े, साथ काम किया और वहाँ के बच्चों के लिए यह अनूठी पहली सौगात तैयार की। आगे चलकर कोरकू भाषा में भी पुस्तकें तैयार हुईं। परिणामस्वरूप आज जहाँ एक ओर मुंडारी बच्चे तमिल कहानी अपनी भाषा में पढ़ रहे हैं वहीं तमिल बच्चों को मुंडारी कहानी अपनी भाषा में पढ़ने को मिल रही है।
इन भाषाओं की पुस्तकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कोई मानक लिपी न होने के कारण इन्हें उस अंचल की मानक भाषा की लिपी में ही लिखा जाता है और स्वभाव से ही ये द्विभाषीय हैं। इसी द्विभाषीय रूप में इनके अनेक रूप तैयार होते हैं जैसे मुण्डा-ओड़िया, जुआंग-ओड़िया, कोरा-बंगाली, कुई-ओड़िया इत्यादि। कई अतिलघु समझी जाने वाली भाषाओं में भी पुस्तकें तैयार करने का स्वर्णिम अवसर प्रथम बुक्स को प्राप्त हुआ है जैसे सुरजापुरी में, लद्दाखी में, गोंडी में, बोड़ो में, कुरुख में, कुरमाली में…। दूसरी और कई क्षेत्रीय भाषाओं में भी अनेक पुस्तकें तैयार हो रही हैं जिनमें बाल पुस्तकों की कमी है जैसे असमिया, मैथिली, सन्थाली आदि।
द्विभाषीय पुस्तकों की एक बड़ी संख्या प्रथम बुक्स ने गत एक दशक में तैयार की है जिनमें हिन्दी, मराठी, कन्नड़, तेलुगू, तमिल, गुजराती, ओड़िया आदि के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा की जोड़ी बनाई गई है। ये पुस्तकें शिक्षकों के हाथों बड़े काम की साबित हो रही हैं।
प्रथम बुक्स सदा से प्रयत्नशील रहा है कि अधिक से अधिक बच्चों तक मौलिक और उच्च स्तर की पुस्तकें पहुँच पाएं और वर्तमान महामारी की परिस्थिति में डिजिटल उन्मुक्त प्लेटफार्म स्टोरीवीवर के माध्यम से न केवल देश के अपितु दुनिया के विभिन्न स्थानों तक भी निर्बाध रूप से पहुँचने में सफल रहा है। आज विश्व की लगभग ३०० भाषाओं में हज़ारों कहानियाँ बच्चों को पढ़ने के लिए मुफ़्त उपलब्ध हैं। इनमें कर्डिश भाषा भी शामिल है और फ्रेंच जैसी प्रतिष्ठित भाषा भी।
भाषाओं के इस जाल में जितनी भाषाएं सम्मिलित हो पाएं, उतनी कम हैं। जितना भाषाई आदान-प्रदान होगा उतना ही हम क्षेत्रीय और वैश्विक समाज में समानता की और अग्रसर हो पाएंगे – ऐसी आशा निश्चित ही की जा सकती है।
और यह सब सम्भव हो पाता है केवल और केवल अनुवाद के माध्यम से। अब देखिए अनुवाद का कितना विस्तृत और सुन्दर रोल विस्फुटित होता है हमारी पुस्तकों और बाल साहित्य में। इस वर्ष अन्तरराष्ट्रीय अनुवाद दिवस (३० सितम्बर) से भाषाई विविधता का जो जश्न हम मना रहे हैं वो अनुवाद के बिना कतई सम्भव नहीं था और न ही इस समझ के बिना कि हर भाषा अपने आप में समृद्ध है और परिपूर्ण है। आवश्यकता केवल उन भाषाओं को अपने दायरे में शामिल करने की है और प्रथम बुक्स में हम इसी प्रयास में रत हैं।