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अम्मा की कहानी

21st February is International Mother Language Day and our blog is hosting a 2 day celebration of languages. A series of blog posts by people from different walks of life – sharing their thoughts on languages, memories and more. International Mother Language Day is an observance held annually on 21 February worldwide to promote awareness of linguistic and cultural diversity and multilingualism.

(This post was written by Manisha Chaudhry – head of content development at Pratham Books. We’ve been receiving several personal narratives for our blog celebration of languages. Here’s Manisha’s vivid recollection of her grandmother and the stories she told.)

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अपनी पहली कहानी पर लिखने बैठूँ और उसमें अम्मा का स्वरूप मेरी आँखों के सामने सजीव न हो उठे ऐसा तो सम्भव नहीं है। अम्मा मेरी दादी माँ जिन्हें सारा जगत दो नामों से जानता था- तहसिलदारनी या अम्मा।
हमारे पुश्तैनी घर व ज़मीन जिस गाँव में थे वह था गाँव बुटैना जो तहसील सिकन्दराबाद व ज़िला बुलन्दशहर में पड़ता है। दादा जी दसवीं कक्षा पास कर तहसिलदार बने तो तहसिलदारनी का रुतबा मिला अम्मा को। दादा तो अपने काम में व्यस्त रहने वाले सरल व्यक्तितव के थे परन्तु दादी को जीवन के हर पहलू से रसास्वादन की कला आती थी। हवेली के अपने हिस्से के दरवाज़े के बाहर किसी भी बहू बेटी या रिश्ते के देवरों को अगर वह कोई हुक्म तामील कर देतीं तो क्या मजाल जो कोई तहसिलदारनी की बात टाल जाये।
अम्मा घर में भी कोई कम रुतबेवाली नहीं थीं। गाँव के स्कूल में पाँचवी कक्षा तक पढ़ी भी थीं जो बात अपने में काफी अचम्भित करने वाली थी। जब मेरी माँ उनके बड़े पुत्र की ब्याहता बन कर उस घर में आईं तो उन्होंने सुबह के स्नान के बाद राम चरितमानस पढ़ने के लिये उत्साहित किया। अम्मा आधे घंटे तक तो ज़रूर जोड़ जोड़ कर उसे पढ़ा करतीं पर अपनी बेमिसाल कथन शैली में उसके बाद कहा करतीं, ‘‘ज़्यादा पढ़ने से दिमाग में झैं झैं होने लगे है।’’ पुस्तक पोथी पठन को वह आदर तो देती थीं पर उनके लिये उनकी बारीकी से हर चीज़ का मुआयना करने वाली पारखी नज़र ही उनकी जीवन नैया खेने की पतवार थी।

दादा जी की असमय मृत्यु के बाद जायदाद ज़मीन खेती की देखरेख व ज़्यादातर खुद ही करती थीं। बेटे सब पढ़ लिख के बाहर नौकरियों पर चले गये थे इसलिये गाँव में रहने के रोज़ के निर्णय उन्हीं की निगरानी में होते। बँटाई पर कौन सा खेत किसे दिया जायेगा, कमेरों की रोटियाँ समय पर तैयार हुई कि नहीं, अनाज किस कोठरी मे भरा जायेगा यह सब मैंने उन्हें करते देखा। 5 फ़ुट का उनका क़द और बहुत घने सफ़ेद बाल जिनकी मेरी कलाइ जितनी मोटी चोटी बनती थी। दूधिया गोरा रंग जिस पर उन्हें बहुत नाज़ था और दो सामने दाँत जो ज़्यादा लम्बे होने के कारण उनके निचले होट पर रखे दिखते थे आज ज़रूर उनको बनी रैबिट की उपाधी दिलवाते पर तब तो उनके बगैर दादी की छवि ही अधूरी थी।

हमारे साथ ही अम्मा ज़्यादा आ के रहती थीं और बतरस का चाव उन्हें बहुत था। अगर कोई बात करने को ना मिले तो अम्मा उदास हो जाती थीं। वैसे भरे पूरे घर में जहाँ दूसरे बेटों, बेटी व रिश्तेदारी का आना जाना लगा रहता था और घर की ज़िम्मेदारी बहु को सौंपने के बाद बतरस का शौक पूरा करना कोई इतना मुश्किल भी नहीं था। पड़ोस में, रिश्ते की चाची, देवरानियाँ इत्यादि के साथ परिवार का लोकचबाव करने में वक्त गुज़रता था। हाथ में सीधी सीधी बुनाई या फिर जवे तोड़ने के साथ साथ बातों की चटनी, या बहु बेटियों के किस्से काफ़ी थे।
उनकी मन की न होने पर कभी कभी पिता जी को भी डाँट पड़ सकती थी। डेढ़ हड्‌डी की अम्मा कमर पर हाथ रख कर यह कहती हुई कि ‘‘हमनें तुझसू कही ना ही कि यूँ किये करें हैं?’’ का उत्तर न देने में ही लोग अपनी भलाई समझते थे।
कभी हवेली की छत पर या कभी आँगन में खाटें डाल के अम्मा की बगल में लेट कर कहानी सुनने का सुख मुझे मिला। जहाँ भी मेरे पिता का तबादला होता वहाँ आम तौर पर घर बड़े मिलते और चौड़े बरामदों, आँगन में तारों की छाँह में सोना आम बात थी। सबसे लोकप्रिय कहानियाँ मुझे दो याद पड़ती है एक थी शेख चिल्ली की कहानी तो दूसरी थी तीन चुहियों की कहानी। दो कहानी सुनते सुनते आम तौर पर नींद की गोद में समा जाना अम्मा की कला का एक हिस्सा ही माना जायेगा। शेख चिल्ली की कहानी कुछ यों थी, ‘‘एक था शेख चिल्ली कुछ काम धाम नहीं करता था दिन भर इधर उधर फिरता था। उसकी माँ ही मेहनत मज़दूरी करके किसी तरह दो वक्त की रोटी जुटाती थी। एक दिन माँ ने उसे कुछ चने भुना के दिये। उन्हें फाँकते समय एक कच्चा चना नीचे गिर गया। और उसमें से एक पौधा फूट आया। बस शेख चिल्ली ने वहीं अपनी चारपाई डाली और बोला ये तो मेरे चने का खेत है और मैं इसकी यहीं रह कर रखवाली करूँगा।
एक दिन वहाँ से चार चोर गुज़रे तो उन्होंने देखा कि कहाँ एक खुली जगह में चारपाई पर कोई सोया पड़ा है। उन्होंने शेख चिल्ली को जगाया और निमंत्रण दिया कि वह उनके साथ चोरी करने चलेगा ? वह बोला हाँ चलेगा पर ज़रा अपनी माँ से पूछ आये कि उसे क्या चाहिये।
माँ ने तो पहले उसे समझाया कि वह चोरी करने ना जाये पर शेख चिल्ली ने तो ज़िद पकड़ ली थी कि वह जायेगा। हार कर माँ बोली कि अच्छा फिर उसे एक कठला (गले में पहनने का हार) ले आना। शेख चिल्ली ने सुना कुठला। कुठला एक तरह का मिट्‌टी का बर्तन है जिसमें अनाज भरा जाता है। चोरों को कुठले की बात सुनने पर अजीब लगा क्योंकि उन्होंने सोचा कि वह सोना चाँदी माँगती तो समझ में आता खैर… शेख चिल्ली उनके साथ हो चला। सबसे पहले एक गाँव के पास पहुँचा तो चोरों ने कहा कि जा गाँव में ‘कनेर’ (कानों से चुप चाप सुनना) ले आ कि सब सोये पड़े हैं या नहीं। जैसे कि कनेर मेरे लिये नया शब्द था तो शेख चिल्ली तो मेरा भाई निकला। वह झट गाँव के बीचों बीच गया और ज़ोर से चिल्ला कर बोला ‘‘अरी कनेर है री कनेर।’’ उसकी आवाज़ सुन कर लोग बाहर निकल आये कि कौन रात में कनेर की पूछता है। शेख चिल्ली ने उन्हें इत्मीनान से बताया कि वह और चोर चोरी करने आये हैं और उसे कनेर लेने भेजा है। ज़ाहिर सी बात है कि चोरों और शेख चिल्ली की गाँव वालो ने अच्छी मरम्मत करी और वो माफ़ी माँगते हुए वहाँ से निकाले गये।
चोरों ने शेख चिल्ली को बहुत बुरा भला सुनाया पर मिन्नतें करके अगली रात फिर उनके साथ हो चला। इस रात उन्होंने एक और गाँव में एक घर की दीवार से सेंध लगाई। अब सेंध मिट्‌टी की दीवार में ही लग सकती है जहाँ से चोर घर में दाखिल हो सकें पर फिर भी अम्मा के यह समझाने के बावजूद मैं अपने घर की चौड़ी मज़बूत दीवारों को कभी कभी टटोलती पाई जाती कि क्या इन में कोई सेंध लगा सकता है?
बहरलाल, पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश की बोली में सेंध लगाने को कूम्हल करना कहा जाता है यह बात भी मैंने अम्मा से ही सीखी। चोरों ने शेख चिल्ली को कहा कि जा आस पास देख के आ कि कोई पलिया पड़ी है जिसमें हम यह मिट्‌टी फ़ेंक सके। पलिया यानि छोटी टोकरी। शेख चिल्ली ने इधर उधर देखा फिर घर के सामने के दरवाज़े पर खटखटाया। घर की बूढ़ी ने दरवाज़ा खोला तो शेख चिल्ली ने पलिया माँगी। उस पर बुढ़िया ने पूछा कि एक अजनबी को इतनी रात पलिया की क्या ज़रूरत पड़ी? शेख चिल्ली ने मासूमियत से कहा, ‘‘अरे मिट्‌टी फेंकेंगे। हमने तुम्हारे घर कुम्हल ना किया है क्या?’’
और फिर वही भगदड़ और मरम्मत का सिलसिला। कहानी काफ़ी लम्बी और निहायत दिलचस्प थी जिसमें कई विफल कोशिशों के बाद उनकी चोरी एक राजा के घर में लग जाती है। शेख चिल्ली माँ को दिये वचन के चलते सिर्फ़ कुठला चोरी करता है। कुछ और नाटकीय मोड़ों के बाद शेख चिल्ली सुधर जाता है और कहानी का अन्त हमेशा इन शब्दों से होता राजा राज, प्रजा सुखी, कहो कहानी पियो पानी। (पूरी कहानी एक और ब्लॉग में)
आवाज़े बदल बदल के, हर किरदार के डायलॉग बोलना, बीच बीच में कभी लतीफ़ों का आ जाना जिन्हें सुनाते हुए अम्मा भी दिल खोल के हँस पड़ती थीं इन सब के कारण कहानी प्रकरण किसी फ़िल्म या ड्रामे से कम दिलचस्प न था। यदि मैं कहूँ कि शायद अम्मा मेरे जीवन में पहली थियेटर निर्देशक थीं तो यह अतिशयोक्ति न होगा। बरसों बाद जब मैंने एन एस डी रेपर्टरी के बेहतरीन ड्रामों में उत्तरा बाओकर, सुरेखा सीकरी जैसी मँझी हुई कलाकारों को ग्रामीण परिवेश से जुड़े रोल निभाते देखा तो कहीं अम्मा की याद ताज़ा हो गई। वह सहज वृत्ति से कहानी सुनाने के दौरान कई तरह के कौशल का प्रयोग करती थीं। किसी नाटकीय रहस्य के पहले वह चुप्पी का प्रयोग करती थीं या जैसे साउंड इफेक्ट्‌स वह चौंका देने वाली घटना के वर्णन में करती थीं वह काबिले तारीफ़ था।
हालाँकि उनकी प्रतिभा मात्र परिवार पुराण के कुछ सुनहरे पन्नों मे दर्ज हो के रह गई कहीं न कहीं हम सभी में अम्मा का आशावादी नज़रिया, उनकी खुली हँसी व जीवन में रस ढूँढ लेने की काबलियत उतर के आई है। हर बात में सितारे टाँकने वाली मेरी अम्मा कहीं आज भी मेरे अन्दर मौजूद हैं। उनकी कहानी का ताना और उनकी सुनाई कहानी का बाना दोनों ही मेरी अपनी बुनावट का हिस्सा हैं।
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