21st February is International Mother Language Day and our blog is hosting a 2 day celebration of languages. A series of blog posts by people from different walks of life – sharing their thoughts on languages, memories and more. International Mother Language Day is an observance held annually on 21 February worldwide to promote awareness of linguistic and cultural diversity and multilingualism.
(This post was sent by Vikram Gakhar. Vikram Gakhar is a full-time engineer and part-time Sanskrit student/teacher/translator. He teaches Sanskrit to a group of people at his workplace and likes to create new material in Sanskrit for beginner students. He likes to think and write about language here when he finds time from watching with wonder as his two-year old daughter acquires language.)
On International Mother Language day, Vikram Gakhar talks about how he got acquainted with Sanskrit, the mother of his mother language.
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यूँ तो अवसर मातृभाषा दिवस का है लेकिन आज मैं उस भाषा के बारे में बात करूँगा जो मेरी मातृभाषा की भी मातृभाषा है। मेरी मातृभाषा हिन्दी है और हिन्दी की जननी है संस्कृत। इस तरह संस्कृत मेरी मातृभाषा की मातृभाषा हुई यानी मातामहीभाषा। और सिर्फ़ मेरी ही नहीं, भारत में रहने वाले करोड़ों लोगों की यह मातामहीभाषा है। हम अपनी मातृभाषा को अच्छी तरह से जानते हैं लेकिन शायद हमारी संस्कृत से ज़्यादा जान-पहचान न हो। मेरा अनुभव यह रहा है कि संस्कृत के थोड़े से अध्ययन से हम जान सकते हैं कि माँ और नानी में कितना गहरा सम्बन्ध है।
संस्कृत से मेरा पहला परिचय स्कूल की पाँचवी कक्षा में हुआ। शुरू के कुछ सालों में दूसरे विषयों की तरह संस्कृत भी अंग्रेज़ी के माध्यम से पढ़ाई जाती थी। दसवीं तक पहुँचते-पहुँचते संस्कृत पढ़ाने का माध्यम बदलकर हिन्दी हो गया था। स्कूल के इन छः सालों में व्याकरण के अंग जैसे शब्द-रूप, धातु-रूप, उपसर्ग, प्रत्यय आदि सिखाए गए और साथ में वाक्यों के अनुवाद भी कराए गए। जिन लोगों ने पाँच-छः साल की उम्र के बाद कोई भाषा सीखने की सफलतापूर्वक कोशिश की है वो बता सकेंगे कि भाषा सीखने का यह तरीका कामयाब नहीं हो सकता। स्कूल के सभी संस्कृत शिक्षक बहुत निष्ठा के साथ पढ़ाते थे फिर भी दसवीं की परीक्षा में अच्छे अंक पाने के बाद भी मैं और मेरे सहपाठी संस्कृत में मौसम की चर्चा तक करने में असमर्थ थे, रस लेना तो दूर की बात है।
इसके बाद कई सालों तक गम्भीरता से संस्कृत पढ़ने की कोशिश नहीं की। स्कूल में भौतिकशास्त्र और गणित मेरे पसन्दीदा विषय होते थे और भाषाओं से मैं दूर भागता था। कविताओं से तो ख़ास दुश्मनी थी। लेकिन स्कूल ख़त्म होने के कई साल बाद जब परीक्षा का डर नहीं रहा तब धीरे-धीरे भाषाओं में दिलचस्पी होने लगी। मैंने लिपियों से शुरुआत की और जो भाषाएँ मेरी थोड़ी पहुँच में थीं जैसे हिन्दी, उर्दू, पंजाबी और भोजपुरी, उनसे जान-पहचान बढ़ाई। बीच-बीच में कभी पञ्चतन्त्र और कभी कालिदास के नाटकों की अनुवाद-सहित पुस्तकें भी कुछ मिनटों तक हाथ में उठा लेता था। जब नौकरी के सिलसिले में बेंगलूरु आया तो कार्यालय में आयोजित कन्नड की कक्षा का भी लाभ उठाया। कक्षा में जो सीखा उसका बाहर सड़कों पर, बसों में और बाज़ार में अभ्यास अभी भी जारी है। कार्यालय में जब सहकर्मियों को चीनी भाषा सीखने का अल्पकालिक जोश आया तो मेंने उनका साथ दिया लेकिन अब चीनी भाषा से जान-पहचान अभिवादन तक ही सीमित है।
बात मातामाहीभाषा से शुरू हुई थी और देखिये कहाँ पहुँच गए! दसवीं कक्षा की परीक्षा लिखने के लगभाग पंद्रह साल बाद फिर से औपचारिक रूप से संस्कृत सीखने का मौका मिला जब मेरे कुछ मित्रों ने कार्यालय में संस्कृत भारती के दस दिन के सम्भाषण शिविर का आयोजन किया। जिनका संस्कृत भारती से परिचय नहीं है, उन्हें यह बता दूँ कि यह संस्था पिछले तीस से अधिक सालों से आम बोलचाल में संस्कृत का प्रचार करने में लगी है। दस दिन का सम्भाषण शिविर सामान्य व्यवहार की संस्कृत सीखने की पहली सीढ़ी है। इस शिविर में भाग लेने से पहले मुझे यह तो पता था कि लोग संस्कृत का अध्ययन करते हैं और उसमें शोध करते हैं लेकिन तब मैंने पहली बार देखा कि ऐसे भी लोग हैं जो हाल-चाल पूछने में, हँसी-मज़ाक करने में और रोज़मर्रा के कामों में भी संस्कृत का प्रयोग करते हैं। दस दिनों में बिना व्याकरण पर ज़ोर दिये हमने रोज़मर्रा की कई परिस्थितियों में काम आने वाले शब्द और वाक्य सीख लिये। इस शिविर के अनुभव से मुझे यह मालूम हुआ कि भाषा सीखने के लिये गलतियों को दूर करने से ज़्यादा ज़रूरी है झिझक को दूर करना। इसके बाद मैं संस्कृत भारती की व्याकरण कक्षा में जाने लगा जो कि शनिवार और रविवार को होती थी। इस कक्षा में संस्कृत के ही माध्यम से संस्कृत पढ़ाई जाती थी। चार महीनों में उतना विषय पढ़ लिया गया जितना स्कूल के छः सालों में पढ़ा था। अगले चार महीनों में इतना सीख लिया कि आम बोलचाल में और गद्य पढ़ने और लिखने में अगर बाधा होती थी तो शब्द ज्ञान की न कि व्याकरण की। जो शब्द-रूप और धातु-रूप स्कूल के दिनों में रटने में परेशानी होती थी उनके छिपे नियम अब दिखने लगे थे जिसकी वजह से शब्द-रूप और धातु-रूप बिना ज़्यादा मेहनत के कण्ठस्थ होने लगे।
पाँच साल बाद आज भी सीखने को बहुत कुछ है। मेरे मित्र और मैं आज भी अलग-अलग तरह से संस्कृत सीखने और सिखाने में कामों में लगे हैं। संस्कृत सीखने के लिये हर किसी का अपना कारण है। मेरे भी कई कारण हैं। मुझे इसका संशय-रहित और सभी बीरीकियों के साथ विस्तृत व्याकरण आकर्षित करता है, जो कि बाकी सभी भाषाओं के व्याकरण से, जिनसे मैं वाकिफ़ हूँ, काफ़ी अलग है। इसमें कम शब्दों में ज़्यादा कह जाने की क्षमता है और इस क्षमता का अच्छी तरह से प्रयोग कर पाना भी हर्ष का स्रोत है। संस्कृत के ज्ञान से हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं के व्याकरण और शब्दों में छिपे तथ्य सामने आने लगते हैं। फिर संस्कृत के बारे में कई गलतफ़हमियाँ दूर हो गईं हैं, जैसे कि यह बहुत कठिन भाषा है, या यह केवल प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ने के ही काम आ सकती है, या यह कम्प्यूटर के लिये सबसे उपयुक्त भाषा है।
आज विश्व मातृभाषा दिवस पर हम अपनी मातृभाषाओं की बात कर रहे हैं, क्या हमारी मातृभाषाएँ भी अपनी मातृभाषा के बारे में सोच रही हैं?
Image Source : Rohini Lakshané/ rohini1729